हिंदी नाटक का उद्भव, विकास और समकालीन हिंदी नाटक की दशा और दिशा
DOI:
https://doi.org/10.7813/zv918130Abstract
हिंदी नाटक का उद्भव और विकास पर प्रकाश डालिए भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से पूर्व हिन्दी में नाटक साहित्य नहीं के बराबर था। जो कुछ था भी वह नाममात्र के लिए था। उन नाटकों में न नाटकीय लक्षण थे, न मौलिकता। अधिकांश नाटक संस्कृत के नाटकों के आधार पर लिखे हुए पद्यबद्ध नाटकीय काव्य थे। इस प्रकार के नाटकों में पन्द्रहवीं शताब्दी में लिखा गया विद्यापति का ‘रुक्मणी परिणय तथा श्पारिजात परिणय, सत्रहवीं शताब्दी में हृदयराम द्वारा लिखा गया हनुमन्नाटक, महाराज यशवंतसिंह का लिखा हुआ ‘प्रबोध चन्द्रोदय नाटक, अठारहवीं शताब्दी, का देव कवि द्वारा लिखा गया ‘देव माया प्रपंच तथा नेवाज कृत ‘शकुन्तला नाटक उन्नीसवीं शताब्दी में लिखा गया। महाराजा विश्वनाथ सिंह का आनन्द रघुनन्दन तथा ब्रजवासी का ‘प्रबोध चन्द्रोदय बीसवीं सदी के नाटकों में आते हैं।भारतेन्दु युगहिन्दी नाटकों का व्यवस्थित रूप भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के काल से ही दृष्टिगोचर होता है। पारसी थियेटरों और नाटक कम्पनियों के असाहित्यिक एवं अव्यवस्थित नाटकों की प्रतिक्रिया के पलस्वरूप भारतेन्दु जी ने नाटक लिखना आरम्भ किया। भारतेन्दु ने जिस नाट्य-पद्धति का श्रीगणेश किया वह अपने अतीत से भिन्न थी। उन्होंने पद्य के स्थान पर गद्य, राम और कृष्ण के स्थान पर सामाजिक तथा राजनीतिक विषयों को ग्रहण किया। भारतेन्दु जी ने स्वयं भी संस्कृत, बंगला तथा अंग्रेजी नाटकों का अच्छा अध्ययन किया था। इनमें से इन्होंने कुछ नाटकों का हिन्दी में अनुवाद भी किया था।